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वि द्वी॒पानि॒ पाप॑त॒न्तिष्ठ॑द्दु॒च्छुनो॒भे यु॑जन्त॒ रोद॑सी । प्र धन्वा॑न्यैरत शुभ्रखादयो॒ यदेज॑थ स्वभानवः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi dvīpāni pāpatan tiṣṭhad ducchunobhe yujanta rodasī | pra dhanvāny airata śubhrakhādayo yad ejatha svabhānavaḥ ||

पद पाठ

वि । द्वी॒पानि॑ । पाप॑तन् । तिष्ठ॑त् । दु॒च्छुना॑ । उ॒भे इति॑ । यु॒ज॒न्त॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । प्र । धन्वा॑नि । ऐ॒र॒त॒ । शु॒भ्र॒ऽखा॒द॒यः॒ । यत् । एज॑थ । स्व॒ऽभा॒न॒वः॒ ॥ ८.२०.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:20» मन्त्र:4 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:36» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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शिव शंकर शर्मा

सेना का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (शुभ्रखादयः) हे शुद्धभोजनो अथवा हे शोभनयुधो ! (स्वभानवः) हे स्वप्रकाश हे स्वतन्त्र ! (यद्) जब (एजथ) आप भयङ्कर मूर्ति धारण कर जगत् को कँपाते हैं, तब (द्वीपानि) द्वीप-द्वीपान्तर (वि+पापतन्) अत्यन्त गिरने लगते हैं। (तिष्ठत्) स्थावर वस्तु भी (दुच्छुना) दुःख से युक्त होती है (रोदसी+युजन्त) द्युलोक और पृथिवी भी दुःख से युक्त होती है (धन्वानि) जल-स्थल भी (प्रैरत) सूख जाते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - राजसेनाएँ सदा प्रजाओं की रक्षा के लिये ही नियुक्त की जाती हैं, इसी काम में सदा धर्म पर वे तत्पर रहें ॥४॥
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आर्यमुनि

अब क्षात्रधर्म के अनुष्ठानी योद्धाओं की शक्ति का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (शुभ्रखादयः) हे शोभन आहारवाले (स्वभानवः) स्वयंप्रकाशमान योद्धाओ ! (यत्, एजथ) जब आप चेष्टा करने में प्रवृत्त होते हैं और आपके (धन्वानि) धनुष (प्रैरत) इतस्ततः जाने लगते हैं, जब (द्वीपानि) सब द्वीपप्रदेश (विपापतन्) विपत्ति में फँस जाते हैं (तिष्ठत्) और स्थावर (दुच्छुना) दुःखमग्न हो जाते हैं (उभे, रोदसी) द्यौ और पृथिवीलोक (युजन्त) एक में मिलने लगते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे सर्वत्रविख्यात योद्धाओ ! जब आपके धनुष की टंकार चहुँ ओर गूँजने लगती है, तब सब लोक-लोकान्तर विपत्तिग्रस्त हो जाते हैं अर्थात् स्वभावसिद्ध क्षात्रधर्मवाले योद्धाओं का प्रभाव द्युलोक तथा पृथिवीलोक में सर्वत्र परिपूर्ण हो जाता है, इसलिये प्रत्येक क्षत्रिय का कर्तव्य है कि वह प्रकृतिसिद्ध क्षात्रधर्म का अनुष्ठान करते हुए अपने को बलवान् बनावे ॥४॥
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शिव शंकर शर्मा

सेनां वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे शुभ्रखादयः=शुद्धभोजनाः शोभनायुधा वा। हे स्वभानवः=स्वप्रकाशाः स्वतन्त्राः सेनाजनाः। यूयम्। यद्=यदा। एजथ=कम्पयथ। तदा। द्वीपानि=द्वयोः पार्श्वयोरापो येषु तान्युदमध्यस्थलानि। विपापतन्=अत्यर्थं पतन्ति। तिष्ठत्=स्थावरम्। दुच्छुना=दुःखेन युज्यते। उभे रोदसी=द्यावापृथिव्यौ चापि। दुच्छुना युजन्त=युज्येते। धन्वानि गमनशीलान्युदकानि च प्रैरत=प्रगच्छन्ति=शुष्यन्ति ॥४॥
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आर्यमुनि

अथ क्षात्रधर्मस्यानुष्ठानकर्तॄणां शक्तिर्वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (शुभ्रखादयः) हे शोभनभक्षाः (स्वभानवः) स्वयंराजमाना मरुतः ! (यत्, एजथ) यूयं यदा चेष्टध्वे तदा (द्वीपानि) द्वीपप्रदेशाः (विपापतन्) विपद्यन्ते (तिष्ठत्) स्थावरं च (दुच्छुना) दुःखेन युज्यते (उभे, रोदसी) उभे द्यावापृथिव्यौ (युजन्त) योजयन्ति एकत्र (धन्वानि) यदा ते धनूँषि (प्रैरत) प्रगच्छन्ति ॥४॥